संवाददाता: सिद्धार्थ कुंवर,नमस्कार भारत

1999 से लगातार पांच बार लोकसभा सांसद रहने के बाद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष माननीय सोनिया गांधी ने ‘लड़ने’ की प्रवृति छोड़ते हुए राज्यसभा के माध्यम से ‘चुना’ जाना पसंद कर नए राजनीतिक समीकरण पैदा कर दिए हैं।

उन्होंने आज राजस्थान से राज्यसभा के लिए अपना नामांकन दाखिल किया है। हालांकि उनके पास कांग्रेस शासित तेलंगाना से लोकसभा अथवा राज्यसभा में जाने का निमंत्रण था किंतु संभवतः राहुल गांधी के केरल और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के कर्नाटक से सांसद होने के चलते वे कांग्रेस को उत्तर-दक्षिण की राजनीतिक बहस को  केंद्र में नहीं लाना चाहती थीं।

अतः हिंदीभाषी राज्य ‘राजस्थान’ का चुनाव कर उन्होंने एक प्रकार से कांग्रेस को इस बहस से दूर करके भाजपा के एक मुख्य चुनावी मुद्दे की धार मंद  कर दी है। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सोनिया गांधी आखिर रायबरेली की अपनी परम्परागत  लोकसभा सीट को छोड़कर क्यों चली गईं?

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से एकमात्र यही सीट थी जो प्रदेश के कांग्रेसियों के लिए भाजपा के भगवे सूर्य के समक्ष ‘दीये’ की भांति चमकती थी। तो क्या 2024 में राम मंदिर का मुद्दा इतना बड़ा होने जा रहा है कि सोनिया गांधी को रायबरेली से भी अपनी हार नजर आ रही थी?

एक निजी सर्वेक्षण संस्था द्वारा हाल ही में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर सर्वे किया गया जिसमें यह तथ्य सामने आया था कि कांग्रेस के लिए रायबरेली में जीत की संभावना 45 फीसदी है। तो क्या इसी कारण सोनिया गांधी ने रायबरेली से पलायन का मार्ग चुना अथवा असल बात कुछ और है?

अटल-आडवाणी युग में भी उत्तर प्रदेश में डटी रहीं सोनिया

सोनिया गांधी की राजनीतिक आमद ऐसे समय में हुई थी जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी न तो पार्टी को साध पा रहे थे और न ही गांधी-नेहरू परिवार के नाम की साख उनके काम आ रही थी। 1998 के उस दौर को कौन भूल सकता है जब सीताराम केसरी को उनके सामान के साथ कांग्रेस कार्यालय से निकाल दिया गया था और पार्टी की कमान सोनिया गांधी ने अपने हाथों में ले ली थी।

इटली में जन्मीं सोनिया गांधी को न तो देश की राजनीति की समझ थी और न ही इसकी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का कोई मॉडल था किंतु अपने कुशल नेतृत्व के दम पर उन्होंने न केवल कांग्रेस को मजबूत किया वरन अटल-आडवाणी की भगवा आंधी के सामने डट कर खड़ी हो गईं।

2004 के लोकसभा चुनाव में वे कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री की स्वाभाविक उम्मीदवार थीं किंतु उनका विदेशी मूल का मुद्दा पद के आड़े आ गया और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि एक दशक तक सत्ता-संगठन में उनकी पकड़ किसी से छुपी नहीं है। यहां तक कि विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भी अपने दौरों में सोनिया गांधी से मिलने दस जनपथ आते थे। उस एक दशक में सोनिया गांधी ने जो चाहा वह किया।

 उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस उस दशक में बेहतर स्थिति में थी और भाजपा दहाई की संख्या भी मुश्किल से पार कर पाती थी। अपना पहला लोकसभा चुनाव उन्होंने कर्नाटक के बेल्लारी और उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से जीता था किंतु उत्तर प्रदेश की राजनीतिक महत्ता को समझते हुए उन्होंने बेल्लारी सीट छोड़ दी थी। वैसे भी रायबरेली, अमेठी, सुल्तानपुर, पीलीभीत जैसी सीटें गांधी-नेहरू परिवार के नाम से ही पहचानी जाती रही हैं और इन सीटों की जनता भी इस परिवार को वोटों का स्नेह देती रही है। यह लीक पिछली बार तब टूटी जब राहुल अमेठी से चुनाव हार गए।

अब सोनिया गांधी का भी राजस्थान से राज्यसभा जाना रायबरेली के सामने यक्ष प्रश्न छोड़ गया है कि यदि सोनिया नहीं तो फिर कौन? सवाल यह भी है कि इन क्षेत्रों से ‘पारिवारिक राजनीति’ का जो लगाव रहा, क्या वह समाप्त होगा?

वैसे एक बात तो तय है कि उत्तर प्रदेश, जहां कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा, वहां से सोनिया गांधी का जाना कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने का एक और कारण बनेगा।

क्या परिवार की प्रासंगिकता बचा रही हैं सोनिया?

राहुल गांधी अब संभवतः अमेठी का रुख नहीं करेंगे क्योंकि राम मंदिर लहर में उनके लिए वहां कुछ नहीं बचा है। वे लोकसभा में केरल की वायनाड सीट का प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, ऐसी संभावना है। प्रियंका गांधी चुनाव लड़ेंगी या नहीं, यह कांग्रेस का सबसे रहस्यमयी प्रश्न है और सोनिया गांधी रायबरेली से जीत ही जातीं, यह भविष्य के गर्भ में है। ऐसे में सोनिया गांधी का राज्यसभा जाना कहीं न कहीं दोनों सदनों में गांधी-नेहरू परिवार की प्रासंगिकता बचाना अधिक लग रहा है।

 यदि लोकसभा में राहुल और राज्यसभा में सोनिया होंगी तो भाजपा का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का स्वप्न पूरा नहीं हो पाएगा। फिर जिस प्रकार राज्य इकाइयों से पुराने कांग्रेसी ‘हाथ का साथ’ छिड़ककर ‘कमल दल’ की सवारी कर रहे हैं, ऐसे में कांग्रेस को पुनः रिवाईव करने में गांधी-नेहरू परिवार के नाम का सहारा चाहिए होगा और दोनों सदनों में ‘परिवार’ का प्रतिनिधित्व इस काम को बखूबी अंजाम देगा।

इसके अलावा सोनिया गांधी के राज्यसभा में होने से लोकसभा में राहुल को अधिक एक्सपोजर मिलेगा जो अपनी भारत जोड़ो यात्रा तथा न्याय यात्रा के बाद राजनीतिक रूप से अधिक परिपक्व नजर आ रहे हैं। हालांकि जो कांग्रेसी सोनिया गांधी के राज्यसभा जाने को उनके स्वास्थ्य से जोड़कर उनका बचाव कर रहे हैं तो उसका कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अपने गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने दो बार लोकसभा चुनाव लड़ा और वे जीतीं।

लेकिन उनका राज्यसभा जाना उच्च सदन में कांग्रेस को मजबूत करेगा। लोकसभा में अभी विपक्ष बिखरा हुआ है किंतु राज्यसभा में अपेक्षाकृत अधिक संगठित नजर आता है। ऐसे में सोनिया गांधी का राज्यसभा में मौजूद होना भविष्य में अगर बीजेपी सरकार बनती है तो उसको घेरने में सहायक होगा।

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