संवाददाता: आलोक शुक्ला ( वरिष्ठ रंगकर्मी, लेखक एवं निर्देशक), नमस्कार भारत
‘Barf’: 7 जून की शाम फिल्म अभिनेता सौरभ शुक्ला द्वारा लिखित निर्देशित और अभिनीत थ्रिलर नाटक ‘बर्फ़’ (‘Barf’) को देखने का मौका मिला ।
करीब दो घंटे के इस नाटक को देखने के लिए नई दिल्ली का पूरा कमानी सभागार खचाखच भरा हुआ था जो स्वाभाविक रूप से सौरभ शुक्ला का फिल्मी आकर्षण था लेकिन अच्छी बात ये कि नाटक खत्म होने के बाद लोगों के साथ नाटक जाता है और यही नाटक की बड़ी कामयाबी है।
कथानक में एक डॉक्टर ( सौरभ शुक्ला) श्रीनगर में एक विस्फोट के कारण कैंसिल हुए मेडिकल सेमिनार के चलते अपने कश्मीरी टैक्सी ड्राइवर नवयुवक( कश्मीरी युवक) के भूतहे से गांव उसके बीमार नन्हे बच्चे को देखने चला जाता है और यहीं से नाटक शुरु होता है जहाँ ये दोनों बर्फबारी के बीच पहाड़ों के बीच सुनसान से गांव जा रहे होते हैं , मुश्किल ये कि जब डॉक्टर गांव जाके बच्चे को देखता है कि वो बच्चा नहीं बल्कि एक डॉल होता है जिसे कश्मीरी नवयुवक की पत्नी अपना बच्चा समझती थी और ये बात बाद में कश्मीरी युवक स्वीकार भी करता है । ये सब डॉक्टर को डराता है और उसे सब षड्यंत्र लगता है। उसे अपनी जान का खतरा महसूस होता है लेकिन नवयुवक डॉक्टर को मज़बूर करता है कि वो इस डॉल को जिंदा बच्चा समझ कर इलाज करे, ये कुछ फनी मोमेंट नाटक में पैदा करते ज़रूर हैं लेकिन डॉक्टर जैसे ही कहता है कि ये डॉल है, नवयुवक की पत्नी उसको पत्थर से घायल कर देती है और लगता है कि डॉक्टर मर जाता है। लेकिन अगले दृश्य में डॉक्टर को कुर्सी से बंधा हुए देखते हैं । इन हालातों से बाहर कैसे डॉक्टर निकलता है ये देखने से अधिक नाटक का अंत देखना आपको अधिक चौकाता है।

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‘Barf’: महज तीन पात्रों डॉक्टर कौल ( सौरभ शुक्ला) कश्मीरी नवयुवक ( सुनील पलवल) और कश्मीरी नवयुवक की पत्नी नफ़ीसा ( आँचल चौहान) का ये नाटक अपने जादू से दर्शकों को अपनी कुर्सियों से चिपकाये रखता है । सौरभ शुक्ला के डरने वाले रिएक्शन, मानसिक बीमार आंचल और कश्मीरी लहजे को घोल कर पी चुके सुनील का अभिनय वाकई देखते ही बनता है ।
इस सबमें राघव प्रकाश का आकर्षक सेट और प्रकाश संयोजन ऐसा जहाँ दूर गांव की चमकती रोशनी हो या बर्फ़ का पहाड़ हो या फिर स्नो फॉल या घाटी का जिग जैग रास्ता या फिर लैंप पोस्ट या फिर सिम्बोलिक किचेन सब आपको ऐसा एहसास देते हैं कि आप किसी हॉल में नहीं बल्कि कश्मीर घाटी के बीच बैठे हुए हैं । वहीं इन घाटियों में अनिल चौधरी का टन टन करता गूँजता संगीत जहाँ नाटक के थ्रिल को बढ़ाता है वहीं घाटी के सन्नाटे को भी चीरता सा नज़र आता है । अच्छा ये है फिल्मों की तरह उन्होंने गैरज़रूरी बैक ग्राउंड म्यूजिक से बचने की कोशिश करते हुए एकदम क्लीन म्यूजिक दिया है।
कुल मिलाकर ये नाटक दिल्ली के दर्शकों के लिए एक अलग अनुभव है जिसे उन्होंने खूब एन्जॉय किया । इसके लिए पूरी टीम के साथ निर्माता पीयूष और दीप्ति बधाई की पात्र हैं।
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