संवाददाता: आलोक शुक्ला, नमस्कार भारत

5 मई की खूबसूरत शाम भारतेन्दू नाट्य अकादमी लखनऊ के नाम रही जहां द्वितीय वर्ष की छात्रा साक्षी के डिप्लोमा प्रोडक्शन की प्रस्तुति साइकोसिस देखने के लिए विशेष रूप से प्रदीप वाजपेई, प्रताप सिंह, विजय लक्ष्मी और सुनील चौहान जी के साथ आमंत्रित था।
4.48 साइकोसिस ब्रिटेन की 90 की दशक की उस युवा नाटककार सारा काने का नाटक है जिन्होंने 28 साल की उम्र में डिप्रेशन में अपने ही शु लेस को गले में बांध कर बाथरूम में आत्म हत्या कर ली थी और इसके पूर्व भी कई बार सारा ने आत्म हत्या के प्रयास किये थे।


सारा अपने इस नाटक में खुद को ही पोट्रेट करती हैं जहाँ पागलखाने में एक महिला मेंटल पेशेंट डिप्रेशन में आ कर आत्म हत्या कर लेती है । पहले इस नाटक में एक पेशेंट के दो रूप ( इनर सेल्फ और आऊटर सेल्फ) और डॉक्टर थे लेकिन बाद में अपने अपने अवसाद में घिरे तीन और किरदार के साथ एक अस्पताल का स्वीपर शामिल किए गए ।
नाटक फ्लैेश बैक ड्रामा था जहाँ सब लोग पहले ही आत्महत्या कर चुके होते हैँ और फिर धीरे धीरे पात्र अपनी कहानी कहते हैं ।कहना ही होगा कि नाटक के इस गहरे अवसाद के सागर में निर्देशिका साक्षी अपने पात्रों को बखूबी गोते लगवाती नज़र आती हैं ।


BNA के दोनों सभागार मरम्मत के चलते बन्द होने के करण BNA की पार्किंग को साक्षी ने जिस खूबसूरती से अपने नाटक का मंच बनाया वो काबिले तारीफ रहा । पात्रों ने भी इसे अच्छे से निभाया जिसे प्रकाश सज्जा ने बखूबी उभारा । प्रॉप्स का अच्छा इस्तेमाल किया गया वहीं ये खूबी ही कही जाएगी कि कुछ प्रॉप्स का इस्तेमाल बचकाना होते हुए भी वो बचकाना नहीं लगा, इसमें इनर सोल की कॉस्ट्यूम और टेडी भी शामिल है तो वहीं पागल खाने में अवसादित होने पर होती आत्म हत्याओं को देखकर अवसाद के रूप में डॉक्टर का मुंह काला करने का प्रतीक अच्छा था।ऐसे ही स्वीपर की हर इंट्री या एक्सिट नाटक को एक ऊंचाई प्रदान करती थी, इसे सूत्रधार कहे या यमदूत जो नाटक को खोलता भी था और बंद भी करता था।
इस सबके लिए BNA बधाई की पात्र है कि उसने साक्षी के रूप में निर्देशन में भविष्य का एक उज्जवल सितारा प्रदान किया है।
इस सबके बाद एक बात ये कि ऐसी नाट्य प्रस्तुति एक आम दर्शक की समझ से परे होती है जहाँ एक ऐसे ही दर्शक ने कहा मुझे कुछ समझ नहीं आया वहीं पहले ही दृश्य के उपरांत मुझे अपना नया नाटक चिप्स याद आने लगा जहाँ एक पात्र को छोड़कर सभी आत्म हत्या कर चुके होते हैँ और फलेश बैक में सब अपनी कहानी कहते हैं ( मेरा ये नाटक मेरे नये नाट्य संग्रह पंचरंग में संग्रहित है) । मेरे पास बैठे प्रताप सिंह जी को बोला तो बोले हाँ मुझे भी याद आ रहा है ।
दूसरा ये कि ये नाटक इंग्लिश और हिंदी का मिक्सर था, अच्छा होता कि इंग्लिश या केवल हिंदी में होता।तीसरा भारतेन्दु नाट्य अकादमी या राष्ट्रीय नाट्य विद्यालयों जैसे नाट्य प्रशिक्षण केंद्रों से ये सवाल है कि वे ज़्यादातार अपने डिप्लोमा प्रोडक्शन मे किसी अंग्रेजी नाटक को ही क्यों आग करते हैं । हिंदी वाले नाटककार मर गए हैं क्या ?

( समीक्षक जाने माने नाटककार हैँ )

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